शिक्षक की भूमिका और जिज्ञासा जागरण
- प्रो. बृज किशोर कुठियाला
प्राणी जगत के सीखने-सिखाने के परिदृश्य पर ध्यान दें तो स्वाभाविक रूप से कुछ प्रश्न उठते हैं:
- बीज ने पेड़ बनना कैसे सीखा ?
- पक्षी को घोंसला बनाना किसने सिखाया ?
- साइबेरिया की सारस ने हजारों मील दूर यात्रा करने का मार्गदर्शन कहॉं से लिया ?
- एक कोशिका को बार-बार विभाजित होना कैसे मालूम पड़ा ?
- एक सिंह को अपने क्षेत्र की रक्षा का दायित्वबोध कहॉं से हुआ ?
- व्हेल मछली को सैकड़ों मील दूर अपने साथियों से वार्ता करने की कला कैसे आई ?
- मानव के नवजात शिशु ने रोने, मुस्कराने, खिलखिलाने का प्रशिक्षण कहॉं से लिया ?
ऐसे असंख्य प्रश्न उठकर खड़े होते हैं, यदि हम यह मानकर चलें कि सीखना और सिखाना एक व्यवस्थित कार्य है। परन्तु सभी प्रश्नों के उत्तर स्वयं प्राप्त हो जाते हैं यदि वेदों की इस बात को मानकर चलें कि जीव में ज्ञान तो पहले से उपलब्ध है केवल उसको प्रस्फुटित होने के अवसर चाहिए।
जैविक विकास की प्रक्रिया में प्रकृति में ऐसे प्राणी का उद्भव हुआ जो अन्य सब जीवों से सर्वाधिक विकसित माना जाता है। ऐसी मानव जाति में अनेक विशेष क्षमताएं हैं जिनमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण शक्ति विकसित हुई है जिसे साधारण भाषा में सीखना कह सकते हैं। मनुष्य न केवल पूरा जीवन सीखता रहता है परंतु उसकी सीखने की क्षमता भी प्रकृति के शेष सभी जीवों से सर्वाधिक विकसित है। इसी अद्वितीय क्षमता के कारण सर्वमान्य धारणा बनी है कि मनुष्य का जन्म केवल मात्र जीने के लिए नहीं है परन्तु उसके जीवन का उद्देश्य अपने जीवन काल में ही अपनी मनुष्यता को विकसित करने का भी है।
हजारों सालों के मानव इतिहास में ज्ञान का अथाह भण्डार निर्मित हुआ जिसमें लगातार वृद्धि होती जा रही है। मानव समाज में प्रवेश पाने वाले हर व्यक्ति को कुछ-न-कुछ न्यूनतम ज्ञान की आवश्यकता जीने के लिए रहती है, परन्तु सभ्य समाज के स्तर तक पहुँचने के लिए उसे और अधिक ज्ञान की आवश्यकता रहती है। चूंकि मानव समाज परस्पर निर्भरता के आधार पर रचित है इसलिए समाज ने अपना दायित्व समझकर ऐसी व्यवस्थाएं बनाईं जिनसे हर नवआगुंतक व्यक्ति को निर्धारित और उससे अधिक ज्ञान देने के लिए रचनाएं बनीं, जिन्हें आज हम विद्यालय, महाविद्यालय या विश्वविद्यालयों के नाम से जानते हैं। पूरे विश्व में गंभीर प्रयास चल रहे हैं कि ऐसी ज्ञान प्राप्ति की संस्थाएं बढ़ें और इनमें शिक्षा प्राप्त करने वालों की संख्या भी अधिकतम हो। सत्य तो यह है कि वर्तमान में विकसित या अविकसित समाज होने का मुख्य मापदण्ड यही है कि कितने प्रतिशत व्यक्तियों ने किस स्तर तक शिक्षा ग्रहण की। इस समस्त शिक्षा व्यवस्था का आधार शिक्षा देने वाला अध्यापक है।
शिक्षा तो अभी होनी है-
समाज के शिक्षित वर्ग के एक अंग को इस शिक्षा के प्रसार के लिए दायित्व दिया जाता है। वर्तमान संदर्भ में शिक्षक की भूमिका निर्धारित प्रतिमानों को मानते हुए हर वर्ष शिक्षार्थियों के कुछ समूहों को ज्ञान हस्तांतरित करने तक सीमित रह जाती है। वास्तविक स्थिति का तथ्यात्मक विवरण करें तो यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में अध्यापन देने और लेने का व्यापार है। अर्थ का आदान-प्रदान और ज्ञान का आदान-प्रदान परस्पर जुड़ा हुआ और समानान्तर चलता है। शिक्षक को वेतन मिलता है और वह पढ़ाता है और विद्यार्थी शुल्क देता है और कुछ जानकारियॉं और कुछ व्यावहारिक कलाएं सीख लेता है। परिणामस्वरूप ज्ञान का भण्डार तो अथाह एकत्रित हो गया परन्तु विकास की दृष्टि से मानव वहीं का वहीं रह गया है। कोरी ज्ञान आधारित संस्कृति के कुप्रभावों की विवेचना करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिम के लोगों को समझाने का प्रयास किया ।‘ज्ञान का विकास जिस दिशा में हुआ है उसके परिणामस्वरूप सैकड़ों विज्ञानों की खोज हुई है, जिसका प्रभाव केवल इतना ही हुआ कि एक छोटे वर्ग ने शेष बहुत बड़े समाज को अपना दास बना लिया है। इसी संदर्भ में स्वामीजी ने यह भी कहा कि – “‘समस्त शिक्षा और ज्ञान के बावजूद यह मान्यता है कि यदि कोई मनुष्य मशीनें बनाने में सफल होता है तो वह उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि है।“ निष्कर्ष के रूप में स्वामीजी ने कहा -विश्व में शिक्षा तो अभी आनी है”।
मानव समाज के सर्वांग विकास के संदर्भ में यदि शिक्षक की भूमिका का विश्लेषण करें तो वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के तीन मूलभूत आधार बिन्दुओं पर केन्द्रित होना अनिवार्य लगता है- पहली धारणा मानव शिशु के जन्म के समय उसकी मानसिक स्थिति के संबंध में है। पश्चिम के दर्शन में इस विषय में अरस्तू ने माना कि जन्म के समय बच्चे का मस्तिष्क कोरा होता है अर्थात् अनुभवहीन होता है। रोम की भाषा में इस स्थिति को ‘टेबुला रासा, कहा जाता है । वास्तव में टेबुला रासा मोम की उस पट्टिका को कहा जाता है जिस पर नुकीली कलम से लिख सकते हैं और गरम करें तो लिखा हुआ मिट जाता है और उसी सतह पर फिर से लिख सकते हैं। उस समय के कुछ दर्शनकारों ने यह भी माना कि मरने पर मस्तिष्क पर लिखा हुआ सब कुछ मिट जाता है इसलिए फिर जन्म लेने पर कोरे कागज की तरह मस्तिष्क कुछ भी लिखने के लिए उपलब्ध रहता है। इस प्रकार से यह माना गया कि मनुष्य या अन्य जीवों में अंतर्निहित ज्ञान शून्य है और जन्म के बाद से उसको वातावरण, समाज और परिस्थतियों के अनुसार ढाला जा सकता है। ग्यारहवीं शताब्दी में प्राचीन ईराक के विद्वान इब्न सिना ने इस परिकल्पना को और विस्तार देते हुए कहा कि मनुष्य की क्षमताएं शिक्षा के माध्यम से ही जागृत होती हैं जिनमें तर्क, निरीक्षण और दिए गए ज्ञान की मुख्य भूमिका होती है। बारहवीं शताब्दी में इस्लामिक विद्वान और उपन्यासकार इब्न तूफेल ने उपन्यास की कहानी के द्वारा कोरे मन की धारणा को स्थापित किया और कहा कि सब कुछ ही सिखाने की आवश्यकता है।
तेरहवीं शताब्दी में सन्त थॉमस हकिनास ने इस विश्वास को ईसाइयत के विचार से जोड़ा और पहले के विश्वास को खण्डित किया कि पृथ्वी पर आने से पहले मनुष्य का मन अन्तरिक्ष में रहता है और जन्म के समय इसका शरीर में प्रवेश होता है। सत्रहवीं सदी में इसी धारणा को और अधिक वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत किया गया कि जन्म के समय मनुष्य का मस्तिष्क कोरी स्लेट की तरह होता है जिसमें जानकारियों के विश्लेषण की समझ नहीं होती है और जन्म लेने के बाद उसको अपनी इन्द्रियों के माध्यम से ये सब सीखना होता है। मनोवैज्ञानिक फ्रायड द्वारा दिए गए विचारों में भी कोरी स्लेट का सिद्धान्त बार-बार आता है। फ्रांस के रूसो ने भी इसी तर्क के आधार पर कहा कि मनुष्य को सब कुछ सीखना पड़ता है। आज तक भी हमारी शिक्षा का आधार यही माना जाता है कि मानव को शून्य से ही सीखना-सिखाना प्रारंभ करना है।
मन कोरा कागज नहीं -
परन्तु धीरे-धीरे मनोविज्ञान, तंत्रिका विज्ञान, जीव विज्ञान आदि अनेक क्षेत्रों के वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध करना प्रारंभ किया है कि जन्म से पहले ही बच्चे को कुछ-न-कुछ ज्ञान होता ही है। उदाहरण के लिए मनोवैज्ञानिक स्टीवन पिन्कस ने सिद्ध किया कि बच्चे का मस्तिष्क बोलना सीखने के लिए तैयार होता है परन्तु पढ़ना और लिखना उसको सिखाना पड़ता है। अब तो विज्ञान यह भी मानकर चल रहा है कि गर्भ में रहते हुए बच्चा संवेदनाओं को न केवल प्राप्त करता है, उनका विश्लेषण और संग्रहण भी करता है।
स्वामी विवेकानन्द ने कोरे मन की अवधारणा को नकारते हुए बार-बार कहा कि सम्पूर्ण ज्ञान तो मनुष्य के अंदर ही उपलब्ध है केवल उसको प्रस्फुटित होने के अवसर चाहिए। इस संदर्भ में स्वामीजी ने कहा –“‘समस्त ज्ञान मनुष्य के अंदर ही है कुछ भी ज्ञान बाहर से नहीं आता ये सब अन्दर ही है । जब हम कहते हैं कि मनुष्य ने जाना है तो मनोविज्ञान की भाषा में वास्तव में इसका अर्थ है कि उसने ‘खोजा है , उघाड़ा है। मनुष्य जो सीखता है वास्तव में वह उसकी उस खोज का परिणाम है जो वह अपनी आत्मा के आवरण को उतारकर प्राप्त करता है। यह अनंत ज्ञान का भण्डार है।” इसी परिपक्व धारणा की प्रेरणा स्वरूप स्वामीजी ने सुप्रसिद्ध उक्ति की रचना की _‘‘” शिक्षा मनुष्य की निहित सम्पूर्णता की अभिव्यक्ति है।“ मुण्डक उपनिषद ने भी दो प्रकार की विद्या की चर्चा की है ‘परा अर्थात बाह्य जगत की समझ और ‘अपरा अर्थात् भीतर की आत्मा का ज्ञान। बौद्ध मत पर आधारित प्राचीन चीन ने भी इसी तरह की व्याख्या ‘यन, और ‘यीन, के रूप में की है।
आज का विज्ञान स्वामी विवेकानन्द के इस विश्वास को सुदृढ़ करता है। राबर्ट ओरिस्टेन और डॉ. रोजर्स स्पेरी जिन्हें नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ है, ने कहा है कि मस्तिष्क का दायां भाग बाएं भाग से भिन्न रूप से जानकारियों को ग्रहण करता है। यह भी सिद्ध हो चुका है कि मस्तिष्क का बायां भाग भौतिक ज्ञान को प्राप्त करता है जबकि दायां भाग अध्यात्म से सम्बन्धित रहता है। यह भी बार-बार सिद्ध हुआ है कि आज की शिक्षा व्यवस्था मस्तिष्क के बाएँ भाग का ही प्रयोग करती है जबकि दायां भाग लगभग व्यर्थ रहता है।
जब स्वामीजी यह कहते हैं कि सम्पूर्ण ज्ञान मनुष्य में ही उपलब्ध है तो कई प्रश्नों के उत्तर स्वयं मिल जाते हैं। यह समझ में आ जाता है कि एक बीज पेड़ कैसे बना. जन्म के पहले वर्ष में सारस ने हजारों मील दूर स्थानान्तरण का मार्ग कैसे पा लिया . स्वामीजी ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा –“‘एक बरगद का सम्पूर्ण पेड़ जो कई एकड़ भूमि पर फैला है एक समय राई के दाने से भी छोटा बीज था। सम्पूर्ण वृक्ष की ऊर्जा उसके अंदर निहित थी।“ स्वामीजी का अगला वाक्य जितना दार्शनिक है उतना ही वैज्ञानिक भी है -‘‘हम जानते हैं कि विशाल ज्ञानशक्ति कोशिका में जैविक द्रव्य से बनी कुण्डली रूप में विद्यमान है।“ आज की भाषा में इसे हम ‘जीन या ‘क्रोमोसोम कहते हैं। जिस प्रकार से विज्ञान की प्रगति हो रही है हमें विश्वास रखना चाहिए कि अनुवांशिक वैज्ञानिक जब अंतिम सत्य को प्राप्त करेंगे तो वे स्वामी विवेकानन्द की बात को ही दोहराएंगे।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली जिसको भारत जैसे देश ने भी पश्चिम का अनुकरण करके बनाया, का आधारभूत सिद्धान्त कि मानव शिशु का मस्तिष्क कोरा कागज होना न केवल अधूरी कल्पना है परन्तु कहीं-न-कहीं घोर असत्य भी है। इस असत्य पर आधारित सारी शिक्षा व्यवस्था और उसमें शिक्षक की भूमिका भी विकृत, अधूरी और अहितकारी ही होगी, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होना चाहिए। दूसरी ओर मनोविज्ञान, मानव विज्ञान, जीव विज्ञान, भौतिकी और दर्शन द्वारा पुष्ट आधारित स्वामी विवेकानन्द की यह अवधारणा कि मनुष्य के अंदर पहले से उपलब्ध ज्ञान के भण्डार को फूल की तरह खिलने की अवस्थाएं बनाना ही शिक्षा है, तो एक अलग तरह की शिक्षा व्यवस्था की रचना करने की आवश्यकता पड़ती है और उस व्यवस्था में शिक्षक की भूमिका देने-लेने की, कर्मचारी की या अध्यापक की न होकर कुछ और ही होगी।
मनुष्य जन्म से पापी नहीं -
वर्तमान शिक्षा की दूसरी अनुचित मौलिक अवधारणा यह मानना है कि शिक्षा का उद्देश्य मानव-पशु को मनुष्य बनाना है। इस अवधारणा का मूल स्रोत पश्चिम के प्राचीन सामाजिक वैज्ञानिकों की अवधारणा है, जिन्होंने माना कि मनुष्य एक सामाजिक पशु है। उन्होंने इस बात को सिद्ध करने का प्रयास किया कि जन्म के समय नवजात शिशु अन्य प्राणियों की तरह पशु मात्र होता है और धीरे-धीरे सामाजीकरण की प्रक्रिया से उसे सामाजिक बना लिया जाता है। अरस्तू जैसे कुछ विद्वानों ने मनुष्य को राजनीतिक प्राणी माना। जबकि फायड जैसे मनोवैज्ञानिकों ने जैविक पशु माना, बेन्जामिन फ्रैन्कलिन ने औजार बनाने वाला पशु और टॉफलर ने कहा कि मनुष्य तो आर्थिक प्राणी है। विश्व की दो प्रमुख प्रचलित राजनीतिक व सामाजिक अवधारणाओं- पूँजीवाद और साम्यवाद में या तो मनुष्य की अर्थ आधारित कल्पना की गई या उसे राजनीतिक इकाई माना गया।
मानव समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी यह मानकर चलता है कि मनुष्य का जन्म पाप के कारण, पापी दुनिया में और पापी के रूप में ही होता है इसलिए जीवन में उसको इन्द्रिय भोग ही प्राप्त करने का उद्देश्य रखना चाहिए। पश्चिम के ही बहुत से विद्वानों ने इन परिकल्पनाओं का खण्डन किया है। टी .एस.इलियट ने कहा कि इस प्रकार की विकृत धारणाओं के आधार पर समाज में खोखला व्यक्तित्व (Hollow Man ) बनता है। पश्चिम के अपने प्रवास में स्वामी विवेकानन्द ने उनके इस विश्वास का प्रभावी खण्डन किया और कई बार घोषणा की और कहा ‘-हे इस पृथ्वी पर उत्पन्न देवताओ- मनुष्य को पापी कहना घोर पाप है। यह मनुष्य की मूल प्रकृति का घोर अपमान है। उन्होंने यह भी भविष्यवाणी की कि एक शताब्दी के अंदर ही मनुष्य की यह नकारात्मक परिकल्पना अंत को प्राप्त करेगी। आज ऐसा ही होता दिख रहा है।
एक विचार के अनुसार जहॉं मनुष्य को पापी माना गया है वहीं वेद मनुष्य को परमात्मा स्वरूप मानते हैं। आज की शिक्षा व्यवस्था मनुष्य को कुछ बनने के लिए प्रेरित करती है जबकि वास्तव में मनुष्य की शिक्षा का उद्देश्य अपने को पहचानने का होना चाहिए। यूनेस्को ने भी शिक्षा पर प्रकाशित अपनी रिर्पोर्ट का शीर्षक दिया था - कुछ होने के लिए सीखना, न कि कुछ बनने के लिए सीखना (Learning to Be and not Learning to Do)। इसी विषय में हार्वर्ड विश्वविद्यालय में विद्वानों को स्वामीजी ने समझाया कि ‘मनुष्य में जो देवत्व है उसी की अभिव्यक्ति सभ्यता है। उन्होंने पूछा इतनी महान सभ्यतायें किस कारण से नष्ट हुईं ? और उत्तर में कहा क्योंकि उन सभ्यताओं का आधार भौतिकवाद था, इस कारण से वे भौतिक सुखों के लिए आपस में लड़कर मर मिटे।“
आज पूरे विश्व में मनुष्य की वैदिक अवधारणा को धीरे-धीरे स्वीकृति प्राप्त हो रही है। ब्रिटेन के मनोवैज्ञानिक आर.डी. लेंग आंतरिक ज्योति की बात करते हैं, वहीं अमेरिकन मनोवैज्ञानिक अब्राहम मास्लो आत्म सिद्धि की बात करते हैं और जैकब नीडलमैन आंतरिक रूपांतर का प्रतिपादन करते हैं। मास्लो लिखते हैं -‘फ्रायड ने मनोविज्ञान का रूग्ण आधा पक्ष प्रस्तुत किया और अब हमारा दायित्व हैं कि हम शेष आधे को स्वस्थ मनोविज्ञान से पूर्ण करें।“ आर.डी लेंग ने फ्रायड की उस अंधे व्यक्ति से तुलना की है जो अन्य अर्ध-अंधे व्यक्तियों को रास्ता दिखा रहा है। ऐसा कहा जाता है कि उपनिषदों में भी यह बताया गया है कि जिस गुरू को स्वयं अनुभूति नहीं हुई होती वह वैसा ही है जैसे एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग दिखाए और दोनों का ही विनाश हो। जिस प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क की अत्यंत त्रुटिपूर्ण समझ के आधार पर बनाई गई शिक्षा व्यवस्था विकृत होगी ही, उसी प्रकार मानव की नैसर्गिक प्रकृति को पूरा पशुवत मानकर यदि रचना बनती है तो वह भी अत्यंत विकृत और विनाशकारी होगी। ऐसी शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक समाज के कल्याण का साधन प्रशस्त करेगा या विनाश का, इसका निर्णय करना कठिन नहीं है।
धर्म विहीनता या धर्म निरपेक्षता -
पश्चिम से प्रभावित वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली में अध्यापक की भूमिका के विश्लेषण का तीसरा विचारणीय बिन्दु उसमें धर्म के प्रति भाव का है। अंग्रेजी के शब्द ‘सेकुलरिज्म का पूर्ण रूप से गलत अर्थ निकालते हुए हमनें ऐसी शिक्षा व्यवस्था की रचना की जो कि धर्म विहीनता को प्रचारित व स्थापित करती है। बौद्धिक वर्ग, मीडिया और विद्वानों ने ‘धर्म शब्द को अंग्रेजी के ‘रिलीजन शब्द के समानान्तर खड़ा कर दिया और नैसर्गिक धार्मिकता को साम्प्रदायिकता का रंग दे दिया। इस विश्वास के प्रतिपादन में भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई ‘धर्म शब्द की व्याख्या को भी उपेक्षित किया। वास्तव में वेदों पर आधारित ज्ञान से प्रेरणा लेते हुए स्वामी विवेकानन्द ने धर्म की व्याख्या उन नियमों और संहिताओं के रूप में की जो प्रकृति में करोड़ों वर्षों से प्रचलित हैं।
प्रकृति का एक शाश्वत नियम सह-अस्तित्व का है और इसका वैज्ञानिक आधार लगभग हर धार्मिक ग्रन्थ में प्रतिपादित है। बौद्ध दर्शन में इसे ‘‘प्रतीत्यससमुस्पाद अर्थात सबकुछ सब पर निर्भर है- इस सृष्टि में सब कुछ आपस में सम्बन्धित माना गया है। आज भौतिकशास्त्र के अणु वैज्ञानिकों ने बार-बार इस सिद्धान्त को सिद्ध किया है। परन्तु धर्म निरपेक्षता के भ्रमित आडम्बर में वर्तमान भारतीय शिक्षा पद्धति इस प्रकार के धार्मिक सिद्धान्तों को शिक्षा का भाग न बनने देने के लिए संकल्पित है। जब प्रकृति के स्थापित और शाश्वत नियम ही शिक्षा का अंग नहीं बनेंगे तो आज का विद्यार्थी, अध्यापक, शोधकर्ता और विद्वान प्रकृति को समझ ही नहीं सकते, उससे सामंजस्य बना ही नहीं सकते। इस धर्म विहीनता का आडम्बर आज भारतीय समाज को विज्ञान सिद्ध तथ्यों से भी परहेज करना सिखाता है। ऐसा लगता है कि कुछ राजनीतिज्ञों की धर्म के विषय में अधूरी समझ ने भारतीय शिक्षा पद्धति को पूजा पद्धतियों के कर्मकाण्ड को धर्म से जोड़कर प्रस्तुत कर दिया है। इससे पूरे शैक्षिक वातावरण में अधूरापन और विकृति व्याप्त हो गई है। पंथ निरपेक्ष होना तो वांछनीय हो सकता है परन्तु उसको धर्म विहीनता मान लेना गहन चिन्ता का विषय है।
स्वामी विवेकानन्द ने बार-बार धार्मिक शिक्षा की अनिवार्यता के उपदेश दिये। स्वामी विवेकानन्द ने बड़ी कुशलता से वेदों द्वारा प्रतिपादित ज्ञान-विज्ञान को उनके समय के विज्ञान के रूप में प्रस्तुत करके यह सिद्ध किया कि धर्म और विज्ञान में अटूट सम्बन्ध है। उल्लेखनीय है कि भारत के पूर्व राष्ट्रपति और विश्व विख्यात दार्शनिक सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने लिखा था कि विवेकानन्द ने यह सिद्ध किया है कि हिन्दू धर्म विज्ञान सम्मत भी है और लोकतंत्र का समर्थक भी।“ दोनों महापुरूषों ने बार-बार यह भी कहा कि वर्तमान में हिन्दू धर्म में कई दोष आ गये हैं। वास्तव में हिन्दू धर्म वह है जो हमारे महान मुनियों को अभिप्रेत था।
विज्ञान एवं आध्यात्म
शिक्षा के विषय में स्वामीजी की एक और बात वैश्विक स्तर पर विचारणीय है। उन्होंने पश्चिम में अपने भाषणों में बार-बार कहा कि उस समाज को धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता है और भारत में अपने उद्बोधनों में उन्होंने विज्ञान की शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया। यह बात पुरानी है और इन 150 वर्षों में हमने ऐसी शिक्षा प्रणाली बनाई जो न तो विज्ञान को पूरी तरह समझाती है और धर्म तो उसके लिए अश्पृश्य है। जो धर्म उस समय समाज में स्वामीजी को दिखता था वह भी लुप्त हो गया। परिणामस्वरूप आज का अध्यापक और विद्यार्थी दोनों ही विज्ञानहीन और धर्महीन बनते जा रहे हैं।
स्वामी विवेकानन्द की एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही है कि उन्होंने यह सिद्ध किया कि धार्मिक मान्यताओं में भी वैज्ञानिक आधार है। पश्चिम के अनेक वैज्ञानिकों से वार्तालाप में उन्होंने उस समाज के इस विश्वास को खण्डित किया कि विज्ञान और धर्म एक दूसरे के प्रतिरोधी हैं। वर्तमान के अनेक वैज्ञानिकों, जिनमें बहुत से नोबल पुरस्कार विजेता हैं, ने बार-बार इस बात को माना कि भारत के आध्यात्म का आधार ही विज्ञान है और विज्ञान का अगला कदम आध्यात्म में ही है। विसल टेलबोट ने लिखा है कि-‘सबसे महत्वपूर्ण यह है कि नवीन भौतिक विज्ञान हमें धर्म का आधार प्रदान कर रहा है। पश्चिम के सांस्कृतिक इतिहास में यह नवाचार है और इसका प्रभाव हमारे जीवन पर अवश्य होगा।“ वैज्ञानिक शॉपनहार ने भविष्यवाणी की थी कि ‘पूरे विश्व में उपनिषदों के अध्ययन से श्रेष्ठ और कोई अध्ययन नहीं है।“
आज शिक्षा जगत में समाज की मूल्य हीनता पर बहुत चर्चा हो रही है और कई प्रकार के प्रकल्प चलाए जा रहे हैं। जिससे शिक्षा के क्षेत्र में मानव मूल्यों को स्थापित करके समाज में भ्रष्टाचार और दुराचार आदि बुराइयों को दूर किया जाए, परन्तु मूल में जाने से समझ में आता है कि मूल्यों के ह्रास का सम्बन्ध धर्मविहीन शिक्षा से ही है। इस प्रकार से एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था जिसको धर्म निरपेक्षता के नाम से धर्मविहीनता का चोला पहना दिया गया हो और ऐसी शिक्षा व्यवस्था जिसमें प्रकृति के नैसर्गिक और शाश्वत मूल्यों का भी समावेश हो, दोनों में शिक्षक की भूमिका बिलकुल भिन्न होगी। एक प्रकार की शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक विद्यार्थियों को धर्म से परहेज करना सिखायेगा और दूसरी प्रकार की शिक्षा में सभी धर्मों का आदर-सम्मान करना सिखायेगा। इस विषय में स्वामी विवेकानन्द के अमेरिका के प्रथम भाषण में, जो उन्होंने विश्व धर्म सभा में किया के वाक्य महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने कहा था कि-‘वे उस समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो अपने से भिन्न धर्मों को केवल मात्र सहते ही नहीं परन्तु उनके मन में सब धर्मों के लिए सम्मान है और वे जानते हैं कि सत्य सब धर्मों में है।“ स्वामी विवेकानन्द की धर्म की व्याख्या, धर्म की समाज में भूमिका एवं धर्म का व्यक्तित्व में समावेश करने वाली शिक्षा व्यवस्था यदि कोई स्थापित कर सकता है तो वह अध्यापक वर्ग ही है। परन्तु उसके लिए पूरे शिक्षक जगत को विवेकानन्दमय होना अनिवार्य है। पूरी चर्चा से तीन विकल्प उपलब्ध होते हैं-
स्वामी विवेकानन्द के दर्शन पर आधारित विकल्प
वर्तमान शिक्षा में प्रचलित विकल्प
मनुष्य में ज्ञान उपलब्ध है, उसको केवल प्रस्फुटित करना है।
मनुष्य सम्पूर्ण रूप से अज्ञानी उत्पन्न होता है और उसको सब कुछ देकर ही सिखाना है।
मनुष्य प्रकृति की श्रेष्ठतम रचना है और उसमें विकास की असीम संभावनायें हैं।
मानव पापी उत्पन्न होता है और उसको पाप में लिप्त रहते हुए इन्द्रिय सुखों का भोग करना है।
शिक्षा में विज्ञान और धर्म को समरूप मानकर एक दूसरे के पूरक समझा जाय।
विज्ञान सत्य पर आधारित है और आध्यात्म भ्रम है।
यदि हम स्वामी विवेकानन्द की धारणाओं पर आधारित शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक की भूमिका ढूँढने का प्रयास करें तो स्पष्ट होता है कि शिक्षक की भूमिका शिक्षा देने की कम है परन्तु सीखने के वातावरण को उत्पन्न करने की अधिक है। शिक्षण या अध्यापन का कार्य भिन्न रूप का है परन्तु आवश्यकता है ऐसे व्यक्तियों की जो विद्यार्थियों के लिए ज्ञान को उघड़वाने का कार्य करें। जो ज्ञान प्राप्ति का मार्गदर्शक बनें। विद्या प्राप्ति को सुसाध्य बनायें। अंग्रेजी के शब्द का प्रयोग करें तो शिक्षक की भूमिका facilitator की हो। सामान्यतः गुरू शब्द का प्रयोग होना चाहिए, परन्तु वर्तमान में इस शब्द के साथ कई तरह के अर्थ एवं भाव जुड़ गये हैं। इसी संदर्भ में स्वामीजी के इस वक्तव्य को समझना आवश्यक है -वास्तव में आज तक किसी ने किसी को पढ़ाया नहीं है। एक शिक्षक जब वह सोचता है कि वो सिखा रहा है तो सब कुछ नष्ट कर देता है । मनुष्य के भीतर सब ज्ञान है, इसे केवल जागृत करना है और अध्यापक का यही दायित्व है।“ एक अन्य स्थान पर स्वामीजी ने कहा है जैसे तुम एक पेड़ को नहीं उगा सकते है वैसे ही तुम एक बच्चे को पढ़ा भी नहीं सकते। बीज अपनी भीतरी प्रकृति के कारण से विकसित होता है।“
विद्यार्थी की पूजा ही शिक्षा -
प्रश्न यह उठता है कि स्वामी विवेकानन्द के विचारों पर आधारित शिक्षा व्यवस्था की रचना होती है तो शिक्षक को क्या करना है? और विद्यार्थी को क्या करना है ? अर्थात विद्यार्थी और अध्यापक के सम्बन्ध और दायित्व क्या हों ? सर्वोत्तम उदाहरण इस संदर्भ में स्वामी विवेकानन्द और श्रीरामकृष्ण परमहंस के सम्बन्ध हैं। रामकृष्ण परमहंस गुरू थे एवं स्वामी विवेकानन्द शिष्य परन्तु गुरू ने स्वामी विवेकानन्द में क्रमशः उत्सुकताएं जागृत कीं, जिनके आधार पर स्वामीजी को ज्ञान का बोध होता गया। ऐसी उत्सुकताएं और जिज्ञासाएं उत्पन्न करने की कला ही अध्यापक का गुण है। वर्तमान में भी श्रेष्ठ और प्रभावी अध्यापक वही माना जाता है जो विद्यार्थियों को प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करे और प्रश्नों के सीधे उत्तर न देकर विद्यार्थियों को इस प्रकार का मार्गदर्शन दे कि विद्यार्थी स्वयं से अपनी जिज्ञासाओं के उत्तर प्राप्त कर सकें। इसे स्वामीजी ने बार-बार आत्म अनुभूति प्राप्त होने का साधन बताया है। स्वामी जितात्मानन्द ने लिखा है कि वेद के अनुसार ज्ञान के माध्यम से अध्यापक शिक्षार्थी की भक्ति करता है।( Teacher according to Vedanta a worshipper and the student is the God worshipped through knowledge)
संक्षेप में यदि कहा जाय तो शिक्षक की भूमिका शिक्षा की व्याख्या पर आधारित है और इस विषय में स्वामी विवेकानन्द के इस वाक्य को सिद्धान्त मानकर चल सकते हैं- शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता का विकास करना जो मनुष्यों में पहले से ही विद्यमान है।“ विद्यार्थी की पूर्णता का विकास करने के लिए शिक्षक को ज्ञान का वितरण या विर्सजन नहीं करना है परन्तु उसको तो विद्यार्थी के माध्यम से ज्ञान के पट खुलवाने हैं और नित नये पट खुलवाने हैं। नये द्वार खोलने की प्रेरणा तभी आ पायेगी जब कुछ नया प्राप्त करने की जिज्ञासा है। इसलिए यदि अध्यापक का कार्य विद्यार्थियों के लिये नये ज्ञान को प्राप्त करने की प्रेरणा देना है, तो उसके लिए सबसे अधिक प्रभावी साधन है जिज्ञासा उत्पन्न करना। ध्यान रखना होगा कि जो स्वयं जिज्ञासु है वह ही जिज्ञासा उत्पन्न करने की क्षमता रख सकता है। इसलिए शिक्षक सदैव विद्यार्थी रहे, ज्ञान का भिक्षु और पिपासु रहे और विद्यार्थियों के साथ मिलकर जिज्ञासाओं का समाधान न करे परन्तु करवाए। स्वामीजी की निम्न उक्ति को इस संदर्भ में उल्लेखित करना प्रासंगिक है-
‘‘थोड़ा ईश्वर का स्मरण,
थोड़ा उसका भरोसा करना सीखो,
सत्य के लिये थोड़ा जोखिम उठाना सीखो,
थोड़ा साहस करना सीखो।
विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित वैदिक सिद्धान्तों के आधार पर रचित शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक की भूमिका निम्न विधियों द्वारा परिभाषित की जा सकती है-
1- शिक्षक विद्यार्थियों में ज्ञान की जागृति का संचारक बने।
2- शिक्षक नवीन ज्ञान को अर्जित करवाने का संवाहक बने।
3- विद्यार्थी के विकास में शिक्षक Facilitator बने।
4- शिक्षक ज्ञान का उपासक।
5- विद्यार्थी और शिक्षक में भक्त और भगवान जैसा संबंध।
6- शिक्षक जिज्ञासु होते हुए सदैव शोधार्थी रहे।
7- प्रकृति के शाश्वत नियमों के प्रतिपादन का शिक्षक कर्तापुरूष बने।
8- शोध के कार्यों में शिक्षक पर्यवेक्षक की भूमिका न निभाकर सहयोगी शोधार्थी की भूमिका में रहे।
(प्रो बृजकिशोर कुठियाला जी माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल के कुलपति हैं तथा उर्वशी पत्रिका के संरक्षक हैं . वे ख्यातिमान शिक्षाविद तथा विचारक हैं )