सम्पादकीय अस्मिता के बहाने हिन्दी की पड़ताल
- डाॅ0 राजेश श्रीवास्तव
ग्रियर्सन जैसे कुछ विद्वानों का यह मानना कि हिन्दी के विकास में एकमात्र भूमिका अगेंजों की रही ,चिंता का विषय है । ग्रियर्सन ने तो यहाॅ तक कहा कि हिन्दुओं के पास कोई भाषा नहीं थी जिससे वे गद्य में कुछ लिख पाते । अंग्रेजों के प्रयत्नों से खडीबोली हिन्दी का रूप सामने आया। उसने इतिहास में यह भी सिद्ध करने का प्रयास किया कि हिन्दू और मुसलमानों के मेलजोल से उर्दू नहीं बनी ।
ग्रियर्सन निष्चित ही विद्वान था और भारतीय भाषाओं पर उसके द्वारा किया गया कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है । उसने भारतीय उपमहाद्वीप की भाषाओं का बारीकी से अध्ययन किया और अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का उदघाटन किया । लेकिन इस सब के पीछे अनजाने ही सही उसके विदेषी मूल स्वभाव के कारण अनेक दोष आ गये । यद्यपि अनेक विद्वानों ने हिन्दी की उस अवस्था पर विचार किया है तथापि उस समय की स्थितियों पर एक बार पुनःविचार किया जाए तो अनेक तथ्यों का खुलासा होने की संभावना है । इस भूमिका के साथ सर्वप्रथम यह समझने की आवष्यकता है कि हिन्दी और उर्दू के संबंधों का आधार क्या है और कितना महत्वपूर्ण है ?
नई भाषा का जन्म धर्मों के मेल से नहीं होता । क्योंकि पहली बात तो यही मानी जाए कि एक धर्म के सभी लोग एक-सी भाषा नहीं बोलते । भारत में ही देखें तो आज भी हिन्दू धर्म के सभी लोगों की भाषा हिन्दी नहीं है । न जाने कितने तरह की भाषाएॅ यहाॅ के हिन्दू बोलते हैं । तमिलनाडु और आंध्रप्रदेष के अधिकांष निवासी हिन्दू हैं लेकिन उनकी भाषाएॅ हिन्दी और बॅंगला के कुल से भिन्न हैं । ठीक इसी प्रकार अलग अलग देषों के लोगों का धर्म एक हो सकता है लेकिन उनकी भाषा एक सी होगी ,यह नहीं कहा जा सकता । जैसे तुर्की, अरब और ईरान के लोग मुसलमान हैं लेकिन उनकी भाषा अलग अलग है ।
यह धारणा भी बडी प्रसिद्ध है कि जब एक देष दूसरे देष पर आक्रमण कर अधिकार करता है तो दोनों संस्कृतियों के समागम से एक नई भाषा का जन्म होता है और इसका उदाहरण उर्दू है। लेकिन यह धारणा भ्रामक है । मुसलमानों ने तो यूरोप के कई देषों पर भी आक्रमण किया था लेकिन वहाॅ उर्दू या किसी अन्य नई भाषा का जन्म नहीं हुआ ।
भारत में जिन मुसलमानों की हम बात करते हैं वे न तो ईरानी थे और न अरब । वे मुख्यतः बाबर के देष तुर्क के निवासी थे और उनकी मुख्य भाषा तुर्की ही थी । तुर्क मुसलमान सांस्कृतिक दृष्टि से पिछडे हुए थे । जैसे जर्मन के कबीलों ने रोम की सभ्यता को नष्ट कर दिया वैसे ही तुर्क आक्रमणकारियों ने उत्तरभारत की सभ्यता और समृद्धि का विनाष किया ।
लेकिन वे किस संस्कृति और भाषा से भारतीयों को प्रभावित करते ? उल्टे खुद ही यहाॅ की संस्कृति और भाषा अपनाने पर विवष हुए और धीरे धीरे यहीं की सभ्यता के आदी हो गए । भारतीय भाषा बोलने वाले हिन्दुओं और तुर्की बोलने वाले मुसलमानों के मिलने से यदि उर्दू का जन्म हुआ होता तो उसमें एक समृद्ध षब्द भंडार तुर्की भाषा का होना चाहिये था लेकिन उर्दू भाषा के अधिकांष षब्द अरबी और फारसी के हैं । पठानों की मातृभाषा तो पष्तो रही है और पष्तो के षब्द भी उर्दू में नगण्य हैं । इसलिये यह समझना कठिन नहीं है कि उर्दू का जन्म दो धर्मों ,दो भाषाओं या दो सांस्कृतिक धाराओं के मेल से नहीं हुआ ।
षेरषाह के समय फारसी भाषा बुलंदी पर थी लेकिन हिन्दी को भी राजकीय सम्मान देते हुए राजभाषा माना गया था । गोलकुण्डा और बीजापुर में फारसी राजभाषा नहीं थी । टोडरमल ने कचहरियों से हिन्दी को निकालकर बाहर कर दिया वहीं मुगलों और हिन्दुओं के एक विषेष वर्ग ने फारसी को अधिकार देकर भारतीय भाषाओं के विकास को रौंद दिया । पाॅच छः सौ वर्षों तक फारसी भारत में छाई रही । दिल्ली केंद्र की भाषा फारसी । उसका सभी भारतीय भाषाओं पर प्रभाव पडा । हिन्दी पर भी । यह प्रभाव ठीक उसी प्रकार का था जैसे आज के भारत में हिन्दी बोलने वाले भारतीयों पर अंग्रेजी का । इधर ईरान एक विषाल सांस्कृतिक दृष्टि सम्पन्न देष था। सूफी संस्कृति का जो भी प्रभाव भारत में है वह ईरानी मुसलमान कवियों के कारण ही है । कविता के क्षेत्र में ईरानियों का स्थान दूसरे देषों के मुसलमानों से कहीं अधिक है । अरब के आक्रमणों से परेषान ईरान ने मुसलिम देषों में अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाई । ईरानी भाषा का उर्दू में भी सकारात्मक प्रभाव हुआ और हिन्दू मानस में भी उसे पर्याप्त सम्मान मिला । लेकिन फारसी ने अपना अलग स्थान बनाया । अनेक भाषाओं में उसके षब्द घुलमिलकर एक हो गए वहीं बंगला, गुजराती , मराठी की तरह फारसी को कई लोगों ने नहीं अपनाया । प्रचलित षब्दों को छोडकर फारसी षब्दों को भरने की परम्परा जैसा आजकल अंग्रेजी के साथ हो रहा है ,प्रायः नहीं रही । लेकिन समृद्ध कवियों ने काव्य व्यवहार में हिन्दी के षब्दों की उपेक्षा कर फारसी का प्रयोग आंरभ कर दिया क्योंकि फारसी भाषा सिॅहासन की भाषा थी । बहुत सारे हिन्दी षब्द इसका षिकार हुए , आज वे अपने स्थानों पर लौट आए हैं ।
इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि अधिकांश भारतीय मुसलमान भारत के ही मूल निवासी थे । वे बाहर से आकर अलग अलग जगहों पर नहीं बसे । ऐसा नहीं कि बाहर से आकर उन्होंने पूर्व और पष्चिम के दो कोनों यानि पंजाब.सिंध और बंगाल को अपना निवास बनाया । हिन्दू और मुसलमानों की समानता के उदाहरण तो इतने हैं कि बहुत से लोगों के तो गो़त्र भी समान मिलते हैं ।
भूगोल की दृष्टि से देखें तो मुसलमानों की संख्या पूर्वीबंगाल, पष्चिमी पंजाब , काष्मीर और सिंध में अधिक थी । लेकिन उर्दू का प्रभाव दिल्ली और आगरा में अधिक हुआ । अर्थात जहाॅ वे अल्पसंख्यक थे वहीं उर्दू का प्रभाव बढ़ा । अपने आपको संभ्रांत और सांस्कृतिक सपन्न दिखाने की होड़ भाषा में चली जब बोलचाल की भाषा को गॅवारू समझकर उसे समाज के लिये अहितकर और काव्य के लिये दोष मानकर सर्वथा त्याज्य माना जाने लगा । भाषा के परिष्कार और समृद्धि के लिये नए षब्द अरबी फारसी से ढूॅढकर लिये जाने लगे । जिससे काव्य एक बडे वर्ग की समझ तक सीमित रहे और दूसरे ,उसकी दुरूहता से पांडित्य प्र्रदर्षन भी होता रहे।
उर्दू ने अरबी से भंडार बढाया वहीं तेलगु ,बंगला और मराठी ने संस्कृत से भाषा को समृद्ध किया । अगे्रंजों के आने के पष्चात उर्दू में अरबी षब्दों की आमद और भी बढ गई ।
यह तथ्य बहुत ही रोचक है कि सिंधी भाषा को छोडकर सभी भारतीय भाषाएॅ वर्णमाला और लिपि की दृष्टि से हिन्दी के निकट हैं और यह भी कि उर्दू को छोडकर सभी भारतीय भाषाओं का सांस्कृतिक आधार संस्कृत ही है जिसमें बंगाल के मुसलमानों की बंगला भी सम्मिलित है ।
सिंधी भारत के पश्चिमी हिस्से और मुख्य रुप से गुजरात और पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में बोली जाने वाली एक प्रमुख भाषा है। इसका संबंध भाषाई परिवार के स्तर पर आर्य भाषा परिवार से है जिसमें संस्कृत समेत हिन्दी, पंजाबी और गुजराती भाषाएँ शामिल हैं। सिंधी भाषा नस्तालिक यानि अरबी लिपी में लिखी जाती है।
सिंधी भाषा सिंध प्रदेश की आधुनिक भारतीय-आर्य भाषा जिसका संबंध पैशाची नाम की प्राकृत और व्राचड नाम की अपभ्रंश से जोड़ा जाता है। इन दोनों नामों से विदित होता है कि सिंधी के मूल में अनार्य तत्व पहले से विद्यमान थे, भले ही वे आर्य प्रभावों के कारण गौण हो गए हों। सिंधी के पश्चिम में बलोची, उत्तर में लहँदी, पूर्व में मारवाड़ी, और दक्षिण में गुजराती का क्षेत्र है। यह बात उल्लेखनीय है कि इस्लामी शासनकाल में सिंध और मुलतान (लहँदीभाषी) एक प्रांत रहा है, और 1843 से 1936 ई. तक सिंध बंबई प्रांत का एक भाग होने के नाते गुजराती के विशेष संपर्क में रहा है।
विश्व का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश भारत वर्ष बहुभाषा भाषी देश है। लगभग 100 से अधिक बोलियाँ इस देश में बोली जाती हैं । किसी भी स्वाधीन देश में राष्ट्र ध्वज, राष्ट्र गान और राष्ट्रीय वेश उस देश की प्रतीकात्मक पहचान है जबकि, राष्ट्रभाषा देश की शिराओं में प्रवाहित होने वाली उस जीवंत रुधिर धार की तरह होती है जिसका संबन्ध व्यक्ति की आत्मिक ऊर्जा और भावात्मक संवेदनों से होता है।
रक्त बुद्धि से अधिक बली है, और अधिक ज्ञानी भी
क्योकि बुद्धि सोचती है और शोणित अनुभव करता है।
स्वतंत्रता के इतने दिन बीत जाने के बाद भी आज हिन्दी की जो स्थिति है उसके लिए अंग्रेज या अंग्रेजी बिल्कुल जिम्मेदार नहीं है। अगर इसके लिए कोई सर्वाधिक जिम्मेदार है तो वह है अंग्रेजियत। अंग्रेजियत एक संस्कृति है, एक संस्कार है जो भारतीय जनमानस में बडे आकर्षण के साथ आधुनिकता और विज्ञान के नाम पर घर करती जा रही है। यही वह विष है जो हमारे जातीय संस्कार और गौरव बोध का हनन कर हमें अस्मिता शून्य बनाता जा रहा है। आज हम हिन्दी की अस्मिता का जो प्रष्न लेकर खड़े हैं उसका उत्तर तो हमें पूर्व से ही ज्ञात है । स्थिति वही है जो उस नकलची विद्यार्थी की होती है जिसे प्रष्न और उत्तर दोनों ही ज्ञात हो गए हैं किन्तु उत्तरपुस्तिका में लिखना नहीं आता । हम भी हिन्दी के नाम पर ढोल बजाने वाले लोग होते जा रहे हैं जिसे सब तरह का अनुमान तो है किन्तु क्रियान्वित करने का उपाय नहीं मालूम।
हिन्दी के विकास, प्रचार-प्रसार और संवर्धन के लिए शासकीय सहायता, ’प्रयत्न, प्रेरणा और अनुदान कभी भी प्रेरक नहीं रहे। विगत दो सौ वर्षों का इतिहास साक्षी है कि (18वीं और 19वीं शताब्दी) हिन्दी शासकीय उपेक्षाओं के बावजूद अपनी आभ्यन्तर ऊर्जा से अपनी सार्वभौम लोकप्रियता से निरन्तर प्रगति पथ पर बढती रही है। राजाश्रय की उसने न तो कभी कामना की और न सहज रूप में राजाश्रय उसे सुलभ हुआ।
परतंत्र भारत में हिन्दी की जो स्थिति थी उसे दयनीय नहीं कहा जा सकता। विदेशी व्यापारियों के सामने भारत में माध्यम का प्रश्न आरंभ से था और अंग्रेज, फ्रेंच, डच, पोर्तुगीज आदि सभी ने अपनी सूझ-बूझ से इसे हल किया था।
प्रसिद्ध भाषा शास्त्री सुनीति कुमार चटर्जी ने अपनी पुस्तक में एक डच यात्री जॉन केटेलर का उल्लेख किया है जो सन् 1685 में सूरत में व्यापार करने के लिए आया था। भाषा माध्यम की समस्या उसके सामने भी थी। वह स्वयं डच भाषी था किन्तु सूरत के आस-पास व्यापारी वर्ग में जो भाषा बोली जाती थी वह हिन्दी गुजराती का मिश्रित रूप था और उसका व्याकरण हिन्दी परक था। अतः जॉन केटेलर ने डच भाषा में हिन्दी का प्रथम व्याकरण लिखा। सन् 1719 में इसाई प्रचारक बैंजामिन शुल्गे मद्रास आए और उन्होंने ‘ग्रेमेटिका हिन्दोस्तानिक’ नाम से देवनागरी अक्षरों में हिन्दी व्याकरण की रचना की। उसी समय हेरासिम लेवेडेफ नामक क्रिस्चन पादरी ने भाषा पंडितों की सहायता से शुद्ध और मिश्रित पूर्वी हिन्दुस्तान की बोलियों का व्याकरण अंग्रेजी में लिखा।
यह सब बताने का अभिप्राय यह है कि गुजरात और मद्रास जैसे अहिन्दी प्रदेशों में विदेशी विद्वानों ने भाषा ज्ञान के लिए एवं माध्यम भाषा के लिए जिन व्याकरण ग्रन्थों का निर्माण किया वे हिन्दी व्याकरण थे। अर्थात उस भाषा के व्याकरण थे जो दो सौ वर्ष पहले इस देश की लोकप्रिय सार्वभौम भाषा थी। उसका विकास किसी दबाव, लालच, शासकीय प्रबन्ध या प्रेरणा से न हो कर विकास की अनिवार्यता से आवश्यकतानुसार स्वयं हो रहा था।
विकासशीलता भाषा का प्राकृत गुण है। उसकी जीवन्तता का लक्षण है। जीवन के विविध व्यापारों की अभिव्यक्ति के लिए व्यवहार में लाई जाने वाली वह प्रत्येक भाषा जो अपना संसर्ग दूसरी भाषाओं से बनाए रखती है, और ज्ञान के नित नूतन संदर्भों से जुडती रहती है, वह अपनी जीवन्तता बनाए रखती है। अर्थात व्यवहार धर्मिता अैार गतिमयता- भाषा की प्रगति को सूचित करने वाली दो प्रमुख विशेषताएं हैं।
भाषा की प्रगति तब मानी जाती है जब एक ओर वह अधिक प्रौढ होती चलती है तो दूसरी ओर उसका प्रसार होता जाता है। पहली स्थिति उसके अर्थ गर्भत्व को संकेतित करती है और दूसरी उसकी व्यापक स्वीकृति को। पहली स्थिति में उसका अंतरंग विकसित होता है और दूसरी स्थिति में बहिरंग प्रोद्भासित होता है। दोनों के संयोग से भाषा समृद्ध और विशेष प्रभावशालिनी बनती है।
जब हम हिन्दी के विकासशील होने की बात कहते हैं तो उसका अभिप्राय भी यही है कि एक ओर उसका अन्तरंग विकसित हुआ है तो दूसरी ओर उसे व्यापक स्वीकृति भी मिली है। यों सामान्यतः यह अपेक्षा किसी भी भाषा से की जा सकती है किन्तु हिन्दी से इसकी विशेष अपेक्षा इसलिए है क्यों कि संविधान के अनुसार वह संघ की राजभाषा है और विभिन्न प्रदेशों के बीच सम्पर्क भाषा की भूमिका का निर्वाह उसे करना है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि, हिन्दी किन दिशाओं में और कितनी विकसित है और उसके विकास की क्या अपेक्षाएं हैं। हिन्दी उन अपेक्षाओं को कहाँ तक पूरा कर पा रही है, या फिर कौन से साधक या बाधक तत्व हैं और उनसे कैसे निपटा जाए?
भाषा के जिस द्विपक्षीय विकास की बात यहाँ कही गयी है उसे क्रमशः गुणात्मक विकास एवं संख्यात्मक विकास कहा जा सकता है। हिन्दी के पक्ष में संख्यात्मकता का बडा बल रहा है और आज भी है। किन्तु एकमात्र उसी को आधार बना कर नहीं रहा जा सकता। गुणात्मक विकास ही उसके संख्यात्मक विकास का कारण रहा है। अतः आज भी हमें उसके गुणात्मक विकास की ओर अधिक सक्रिय और सजग रहने की आवश्यकता है। गुणात्मक विकास की भी दो दिशाएं हैं। 1. ललित साहित्य सृजन’ 2. ज्ञानात्मक साहित्य की रचना और उसकी अभिव्यक्ति का विकास। आज जिस संदर्भ में हिन्दी पर विचार किया जा रहा है वह ललित साहित्य की प्रौढता को लेकर नहीं है।
राष्ट्र के समक्ष जो चुनौती है वह व्यावहारिक धरातल पर भाषिक सम्पर्क और उसके माध्यम से पारस्परिक सहयोग की भूमिका तैयार करने की है। नयी तकनीक, नये आविष्कार और विज्ञान की अनन्त उपलब्धियों और संभावनाओं को हमें अपनी भाषा के माध्यम से उजागर करना है। इस दिशा में भी यद्यपि प्रयत्न हो रहे हैं पर जितने और जिस गति से हो रहे हैं वे पर्याप्त नहीं हैं। इस दिशा में भौतिक चिन्तन एवं लेखन के साथ हमें अन्तर्राष्ट्रीय जगत से सम्पर्क बनाए रखना होगा। आज का युग अंतरावलम्बन का युग है। विकसित देशों में भी अपनी समृद्ध भाषा में लिखे गए साहित्य के अतिरिक्त इतरदेशीय भाषाओं में लिखे गए साहित्य से लाभ उठाया जाता है।
आज हम इंटरनेट के जरिए किसी भी देश के पुस्तकालय में प्रवेश पा सकते हैं। हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ भी इसके जरिए विश्व भर में आसानी से पढी जा रही हैं। अतः समस्त वातायनों को बन्द करके हिन्दी को सिंहासनारूढ कराने की बात हम नहीं कहते। हिन्दी की सम्पूर्ण प्रतिष्ठा के बावजूद ज्ञान-विज्ञान के नवीन स्रोतों की जानकारी के लिए समृद्ध भाषाओं के उपयोग की आवश्यकता पर कोई प्रश्नचिहन नहीं लगाया जा सकता।
किसी भाषा की शक्ति और सम्पन्नता केवल इस बात पर निर्भर नहीं होती कि वह अपने शब्द कोष में कितने शब्द संभाले हुए है बल्कि यह देखना भी जरूरी है कि उसमें नवीन शब्दों के निर्माण की कितनी क्षमता और शब्दों को आत्मसात करने की कितनी उदारता है। हिन्दी में ये दोनों ही विशेषताएं विद्यमान हैं। मध्यकालीन कवियों ने अरबी-फारसी के न जाने कितने शब्दों को न केवल अपनी भाषा में खपा लिया बल्कि उन्हें हिन्दी की प्रवृत्ति के अनुसार ढाल भी लिया था। यह क्रम चलता रहना चाहिए था।
हिन्दी की मौजूदा स्थिति निराशाजनक तो कदापि नहीं है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि भाषागत राजनीति में न उलझ कर हिन्दी को अपने हित के लिए दृढता से उस नीति का अनुसरण करना होगा जिससे वह और अधिक समृद्ध और सशक्त होती जाए और उसकी सर्वग्राह्यता बनी रहे।
डाॅ0 राजेश श्रीवास्तव
भोपाल म0प्र0
दूरभाष-9827303165
- डाॅ0 राजेश श्रीवास्तव
ग्रियर्सन जैसे कुछ विद्वानों का यह मानना कि हिन्दी के विकास में एकमात्र भूमिका अगेंजों की रही ,चिंता का विषय है । ग्रियर्सन ने तो यहाॅ तक कहा कि हिन्दुओं के पास कोई भाषा नहीं थी जिससे वे गद्य में कुछ लिख पाते । अंग्रेजों के प्रयत्नों से खडीबोली हिन्दी का रूप सामने आया। उसने इतिहास में यह भी सिद्ध करने का प्रयास किया कि हिन्दू और मुसलमानों के मेलजोल से उर्दू नहीं बनी ।
ग्रियर्सन निष्चित ही विद्वान था और भारतीय भाषाओं पर उसके द्वारा किया गया कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है । उसने भारतीय उपमहाद्वीप की भाषाओं का बारीकी से अध्ययन किया और अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का उदघाटन किया । लेकिन इस सब के पीछे अनजाने ही सही उसके विदेषी मूल स्वभाव के कारण अनेक दोष आ गये । यद्यपि अनेक विद्वानों ने हिन्दी की उस अवस्था पर विचार किया है तथापि उस समय की स्थितियों पर एक बार पुनःविचार किया जाए तो अनेक तथ्यों का खुलासा होने की संभावना है । इस भूमिका के साथ सर्वप्रथम यह समझने की आवष्यकता है कि हिन्दी और उर्दू के संबंधों का आधार क्या है और कितना महत्वपूर्ण है ?
नई भाषा का जन्म धर्मों के मेल से नहीं होता । क्योंकि पहली बात तो यही मानी जाए कि एक धर्म के सभी लोग एक-सी भाषा नहीं बोलते । भारत में ही देखें तो आज भी हिन्दू धर्म के सभी लोगों की भाषा हिन्दी नहीं है । न जाने कितने तरह की भाषाएॅ यहाॅ के हिन्दू बोलते हैं । तमिलनाडु और आंध्रप्रदेष के अधिकांष निवासी हिन्दू हैं लेकिन उनकी भाषाएॅ हिन्दी और बॅंगला के कुल से भिन्न हैं । ठीक इसी प्रकार अलग अलग देषों के लोगों का धर्म एक हो सकता है लेकिन उनकी भाषा एक सी होगी ,यह नहीं कहा जा सकता । जैसे तुर्की, अरब और ईरान के लोग मुसलमान हैं लेकिन उनकी भाषा अलग अलग है ।
यह धारणा भी बडी प्रसिद्ध है कि जब एक देष दूसरे देष पर आक्रमण कर अधिकार करता है तो दोनों संस्कृतियों के समागम से एक नई भाषा का जन्म होता है और इसका उदाहरण उर्दू है। लेकिन यह धारणा भ्रामक है । मुसलमानों ने तो यूरोप के कई देषों पर भी आक्रमण किया था लेकिन वहाॅ उर्दू या किसी अन्य नई भाषा का जन्म नहीं हुआ ।
भारत में जिन मुसलमानों की हम बात करते हैं वे न तो ईरानी थे और न अरब । वे मुख्यतः बाबर के देष तुर्क के निवासी थे और उनकी मुख्य भाषा तुर्की ही थी । तुर्क मुसलमान सांस्कृतिक दृष्टि से पिछडे हुए थे । जैसे जर्मन के कबीलों ने रोम की सभ्यता को नष्ट कर दिया वैसे ही तुर्क आक्रमणकारियों ने उत्तरभारत की सभ्यता और समृद्धि का विनाष किया ।
लेकिन वे किस संस्कृति और भाषा से भारतीयों को प्रभावित करते ? उल्टे खुद ही यहाॅ की संस्कृति और भाषा अपनाने पर विवष हुए और धीरे धीरे यहीं की सभ्यता के आदी हो गए । भारतीय भाषा बोलने वाले हिन्दुओं और तुर्की बोलने वाले मुसलमानों के मिलने से यदि उर्दू का जन्म हुआ होता तो उसमें एक समृद्ध षब्द भंडार तुर्की भाषा का होना चाहिये था लेकिन उर्दू भाषा के अधिकांष षब्द अरबी और फारसी के हैं । पठानों की मातृभाषा तो पष्तो रही है और पष्तो के षब्द भी उर्दू में नगण्य हैं । इसलिये यह समझना कठिन नहीं है कि उर्दू का जन्म दो धर्मों ,दो भाषाओं या दो सांस्कृतिक धाराओं के मेल से नहीं हुआ ।
षेरषाह के समय फारसी भाषा बुलंदी पर थी लेकिन हिन्दी को भी राजकीय सम्मान देते हुए राजभाषा माना गया था । गोलकुण्डा और बीजापुर में फारसी राजभाषा नहीं थी । टोडरमल ने कचहरियों से हिन्दी को निकालकर बाहर कर दिया वहीं मुगलों और हिन्दुओं के एक विषेष वर्ग ने फारसी को अधिकार देकर भारतीय भाषाओं के विकास को रौंद दिया । पाॅच छः सौ वर्षों तक फारसी भारत में छाई रही । दिल्ली केंद्र की भाषा फारसी । उसका सभी भारतीय भाषाओं पर प्रभाव पडा । हिन्दी पर भी । यह प्रभाव ठीक उसी प्रकार का था जैसे आज के भारत में हिन्दी बोलने वाले भारतीयों पर अंग्रेजी का । इधर ईरान एक विषाल सांस्कृतिक दृष्टि सम्पन्न देष था। सूफी संस्कृति का जो भी प्रभाव भारत में है वह ईरानी मुसलमान कवियों के कारण ही है । कविता के क्षेत्र में ईरानियों का स्थान दूसरे देषों के मुसलमानों से कहीं अधिक है । अरब के आक्रमणों से परेषान ईरान ने मुसलिम देषों में अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाई । ईरानी भाषा का उर्दू में भी सकारात्मक प्रभाव हुआ और हिन्दू मानस में भी उसे पर्याप्त सम्मान मिला । लेकिन फारसी ने अपना अलग स्थान बनाया । अनेक भाषाओं में उसके षब्द घुलमिलकर एक हो गए वहीं बंगला, गुजराती , मराठी की तरह फारसी को कई लोगों ने नहीं अपनाया । प्रचलित षब्दों को छोडकर फारसी षब्दों को भरने की परम्परा जैसा आजकल अंग्रेजी के साथ हो रहा है ,प्रायः नहीं रही । लेकिन समृद्ध कवियों ने काव्य व्यवहार में हिन्दी के षब्दों की उपेक्षा कर फारसी का प्रयोग आंरभ कर दिया क्योंकि फारसी भाषा सिॅहासन की भाषा थी । बहुत सारे हिन्दी षब्द इसका षिकार हुए , आज वे अपने स्थानों पर लौट आए हैं ।
इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि अधिकांश भारतीय मुसलमान भारत के ही मूल निवासी थे । वे बाहर से आकर अलग अलग जगहों पर नहीं बसे । ऐसा नहीं कि बाहर से आकर उन्होंने पूर्व और पष्चिम के दो कोनों यानि पंजाब.सिंध और बंगाल को अपना निवास बनाया । हिन्दू और मुसलमानों की समानता के उदाहरण तो इतने हैं कि बहुत से लोगों के तो गो़त्र भी समान मिलते हैं ।
भूगोल की दृष्टि से देखें तो मुसलमानों की संख्या पूर्वीबंगाल, पष्चिमी पंजाब , काष्मीर और सिंध में अधिक थी । लेकिन उर्दू का प्रभाव दिल्ली और आगरा में अधिक हुआ । अर्थात जहाॅ वे अल्पसंख्यक थे वहीं उर्दू का प्रभाव बढ़ा । अपने आपको संभ्रांत और सांस्कृतिक सपन्न दिखाने की होड़ भाषा में चली जब बोलचाल की भाषा को गॅवारू समझकर उसे समाज के लिये अहितकर और काव्य के लिये दोष मानकर सर्वथा त्याज्य माना जाने लगा । भाषा के परिष्कार और समृद्धि के लिये नए षब्द अरबी फारसी से ढूॅढकर लिये जाने लगे । जिससे काव्य एक बडे वर्ग की समझ तक सीमित रहे और दूसरे ,उसकी दुरूहता से पांडित्य प्र्रदर्षन भी होता रहे।
उर्दू ने अरबी से भंडार बढाया वहीं तेलगु ,बंगला और मराठी ने संस्कृत से भाषा को समृद्ध किया । अगे्रंजों के आने के पष्चात उर्दू में अरबी षब्दों की आमद और भी बढ गई ।
यह तथ्य बहुत ही रोचक है कि सिंधी भाषा को छोडकर सभी भारतीय भाषाएॅ वर्णमाला और लिपि की दृष्टि से हिन्दी के निकट हैं और यह भी कि उर्दू को छोडकर सभी भारतीय भाषाओं का सांस्कृतिक आधार संस्कृत ही है जिसमें बंगाल के मुसलमानों की बंगला भी सम्मिलित है ।
सिंधी भारत के पश्चिमी हिस्से और मुख्य रुप से गुजरात और पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में बोली जाने वाली एक प्रमुख भाषा है। इसका संबंध भाषाई परिवार के स्तर पर आर्य भाषा परिवार से है जिसमें संस्कृत समेत हिन्दी, पंजाबी और गुजराती भाषाएँ शामिल हैं। सिंधी भाषा नस्तालिक यानि अरबी लिपी में लिखी जाती है।
सिंधी भाषा सिंध प्रदेश की आधुनिक भारतीय-आर्य भाषा जिसका संबंध पैशाची नाम की प्राकृत और व्राचड नाम की अपभ्रंश से जोड़ा जाता है। इन दोनों नामों से विदित होता है कि सिंधी के मूल में अनार्य तत्व पहले से विद्यमान थे, भले ही वे आर्य प्रभावों के कारण गौण हो गए हों। सिंधी के पश्चिम में बलोची, उत्तर में लहँदी, पूर्व में मारवाड़ी, और दक्षिण में गुजराती का क्षेत्र है। यह बात उल्लेखनीय है कि इस्लामी शासनकाल में सिंध और मुलतान (लहँदीभाषी) एक प्रांत रहा है, और 1843 से 1936 ई. तक सिंध बंबई प्रांत का एक भाग होने के नाते गुजराती के विशेष संपर्क में रहा है।
विश्व का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश भारत वर्ष बहुभाषा भाषी देश है। लगभग 100 से अधिक बोलियाँ इस देश में बोली जाती हैं । किसी भी स्वाधीन देश में राष्ट्र ध्वज, राष्ट्र गान और राष्ट्रीय वेश उस देश की प्रतीकात्मक पहचान है जबकि, राष्ट्रभाषा देश की शिराओं में प्रवाहित होने वाली उस जीवंत रुधिर धार की तरह होती है जिसका संबन्ध व्यक्ति की आत्मिक ऊर्जा और भावात्मक संवेदनों से होता है।
रक्त बुद्धि से अधिक बली है, और अधिक ज्ञानी भी
क्योकि बुद्धि सोचती है और शोणित अनुभव करता है।
स्वतंत्रता के इतने दिन बीत जाने के बाद भी आज हिन्दी की जो स्थिति है उसके लिए अंग्रेज या अंग्रेजी बिल्कुल जिम्मेदार नहीं है। अगर इसके लिए कोई सर्वाधिक जिम्मेदार है तो वह है अंग्रेजियत। अंग्रेजियत एक संस्कृति है, एक संस्कार है जो भारतीय जनमानस में बडे आकर्षण के साथ आधुनिकता और विज्ञान के नाम पर घर करती जा रही है। यही वह विष है जो हमारे जातीय संस्कार और गौरव बोध का हनन कर हमें अस्मिता शून्य बनाता जा रहा है। आज हम हिन्दी की अस्मिता का जो प्रष्न लेकर खड़े हैं उसका उत्तर तो हमें पूर्व से ही ज्ञात है । स्थिति वही है जो उस नकलची विद्यार्थी की होती है जिसे प्रष्न और उत्तर दोनों ही ज्ञात हो गए हैं किन्तु उत्तरपुस्तिका में लिखना नहीं आता । हम भी हिन्दी के नाम पर ढोल बजाने वाले लोग होते जा रहे हैं जिसे सब तरह का अनुमान तो है किन्तु क्रियान्वित करने का उपाय नहीं मालूम।
हिन्दी के विकास, प्रचार-प्रसार और संवर्धन के लिए शासकीय सहायता, ’प्रयत्न, प्रेरणा और अनुदान कभी भी प्रेरक नहीं रहे। विगत दो सौ वर्षों का इतिहास साक्षी है कि (18वीं और 19वीं शताब्दी) हिन्दी शासकीय उपेक्षाओं के बावजूद अपनी आभ्यन्तर ऊर्जा से अपनी सार्वभौम लोकप्रियता से निरन्तर प्रगति पथ पर बढती रही है। राजाश्रय की उसने न तो कभी कामना की और न सहज रूप में राजाश्रय उसे सुलभ हुआ।
परतंत्र भारत में हिन्दी की जो स्थिति थी उसे दयनीय नहीं कहा जा सकता। विदेशी व्यापारियों के सामने भारत में माध्यम का प्रश्न आरंभ से था और अंग्रेज, फ्रेंच, डच, पोर्तुगीज आदि सभी ने अपनी सूझ-बूझ से इसे हल किया था।
प्रसिद्ध भाषा शास्त्री सुनीति कुमार चटर्जी ने अपनी पुस्तक में एक डच यात्री जॉन केटेलर का उल्लेख किया है जो सन् 1685 में सूरत में व्यापार करने के लिए आया था। भाषा माध्यम की समस्या उसके सामने भी थी। वह स्वयं डच भाषी था किन्तु सूरत के आस-पास व्यापारी वर्ग में जो भाषा बोली जाती थी वह हिन्दी गुजराती का मिश्रित रूप था और उसका व्याकरण हिन्दी परक था। अतः जॉन केटेलर ने डच भाषा में हिन्दी का प्रथम व्याकरण लिखा। सन् 1719 में इसाई प्रचारक बैंजामिन शुल्गे मद्रास आए और उन्होंने ‘ग्रेमेटिका हिन्दोस्तानिक’ नाम से देवनागरी अक्षरों में हिन्दी व्याकरण की रचना की। उसी समय हेरासिम लेवेडेफ नामक क्रिस्चन पादरी ने भाषा पंडितों की सहायता से शुद्ध और मिश्रित पूर्वी हिन्दुस्तान की बोलियों का व्याकरण अंग्रेजी में लिखा।
यह सब बताने का अभिप्राय यह है कि गुजरात और मद्रास जैसे अहिन्दी प्रदेशों में विदेशी विद्वानों ने भाषा ज्ञान के लिए एवं माध्यम भाषा के लिए जिन व्याकरण ग्रन्थों का निर्माण किया वे हिन्दी व्याकरण थे। अर्थात उस भाषा के व्याकरण थे जो दो सौ वर्ष पहले इस देश की लोकप्रिय सार्वभौम भाषा थी। उसका विकास किसी दबाव, लालच, शासकीय प्रबन्ध या प्रेरणा से न हो कर विकास की अनिवार्यता से आवश्यकतानुसार स्वयं हो रहा था।
विकासशीलता भाषा का प्राकृत गुण है। उसकी जीवन्तता का लक्षण है। जीवन के विविध व्यापारों की अभिव्यक्ति के लिए व्यवहार में लाई जाने वाली वह प्रत्येक भाषा जो अपना संसर्ग दूसरी भाषाओं से बनाए रखती है, और ज्ञान के नित नूतन संदर्भों से जुडती रहती है, वह अपनी जीवन्तता बनाए रखती है। अर्थात व्यवहार धर्मिता अैार गतिमयता- भाषा की प्रगति को सूचित करने वाली दो प्रमुख विशेषताएं हैं।
भाषा की प्रगति तब मानी जाती है जब एक ओर वह अधिक प्रौढ होती चलती है तो दूसरी ओर उसका प्रसार होता जाता है। पहली स्थिति उसके अर्थ गर्भत्व को संकेतित करती है और दूसरी उसकी व्यापक स्वीकृति को। पहली स्थिति में उसका अंतरंग विकसित होता है और दूसरी स्थिति में बहिरंग प्रोद्भासित होता है। दोनों के संयोग से भाषा समृद्ध और विशेष प्रभावशालिनी बनती है।
जब हम हिन्दी के विकासशील होने की बात कहते हैं तो उसका अभिप्राय भी यही है कि एक ओर उसका अन्तरंग विकसित हुआ है तो दूसरी ओर उसे व्यापक स्वीकृति भी मिली है। यों सामान्यतः यह अपेक्षा किसी भी भाषा से की जा सकती है किन्तु हिन्दी से इसकी विशेष अपेक्षा इसलिए है क्यों कि संविधान के अनुसार वह संघ की राजभाषा है और विभिन्न प्रदेशों के बीच सम्पर्क भाषा की भूमिका का निर्वाह उसे करना है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि, हिन्दी किन दिशाओं में और कितनी विकसित है और उसके विकास की क्या अपेक्षाएं हैं। हिन्दी उन अपेक्षाओं को कहाँ तक पूरा कर पा रही है, या फिर कौन से साधक या बाधक तत्व हैं और उनसे कैसे निपटा जाए?
भाषा के जिस द्विपक्षीय विकास की बात यहाँ कही गयी है उसे क्रमशः गुणात्मक विकास एवं संख्यात्मक विकास कहा जा सकता है। हिन्दी के पक्ष में संख्यात्मकता का बडा बल रहा है और आज भी है। किन्तु एकमात्र उसी को आधार बना कर नहीं रहा जा सकता। गुणात्मक विकास ही उसके संख्यात्मक विकास का कारण रहा है। अतः आज भी हमें उसके गुणात्मक विकास की ओर अधिक सक्रिय और सजग रहने की आवश्यकता है। गुणात्मक विकास की भी दो दिशाएं हैं। 1. ललित साहित्य सृजन’ 2. ज्ञानात्मक साहित्य की रचना और उसकी अभिव्यक्ति का विकास। आज जिस संदर्भ में हिन्दी पर विचार किया जा रहा है वह ललित साहित्य की प्रौढता को लेकर नहीं है।
राष्ट्र के समक्ष जो चुनौती है वह व्यावहारिक धरातल पर भाषिक सम्पर्क और उसके माध्यम से पारस्परिक सहयोग की भूमिका तैयार करने की है। नयी तकनीक, नये आविष्कार और विज्ञान की अनन्त उपलब्धियों और संभावनाओं को हमें अपनी भाषा के माध्यम से उजागर करना है। इस दिशा में भी यद्यपि प्रयत्न हो रहे हैं पर जितने और जिस गति से हो रहे हैं वे पर्याप्त नहीं हैं। इस दिशा में भौतिक चिन्तन एवं लेखन के साथ हमें अन्तर्राष्ट्रीय जगत से सम्पर्क बनाए रखना होगा। आज का युग अंतरावलम्बन का युग है। विकसित देशों में भी अपनी समृद्ध भाषा में लिखे गए साहित्य के अतिरिक्त इतरदेशीय भाषाओं में लिखे गए साहित्य से लाभ उठाया जाता है।
आज हम इंटरनेट के जरिए किसी भी देश के पुस्तकालय में प्रवेश पा सकते हैं। हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ भी इसके जरिए विश्व भर में आसानी से पढी जा रही हैं। अतः समस्त वातायनों को बन्द करके हिन्दी को सिंहासनारूढ कराने की बात हम नहीं कहते। हिन्दी की सम्पूर्ण प्रतिष्ठा के बावजूद ज्ञान-विज्ञान के नवीन स्रोतों की जानकारी के लिए समृद्ध भाषाओं के उपयोग की आवश्यकता पर कोई प्रश्नचिहन नहीं लगाया जा सकता।
किसी भाषा की शक्ति और सम्पन्नता केवल इस बात पर निर्भर नहीं होती कि वह अपने शब्द कोष में कितने शब्द संभाले हुए है बल्कि यह देखना भी जरूरी है कि उसमें नवीन शब्दों के निर्माण की कितनी क्षमता और शब्दों को आत्मसात करने की कितनी उदारता है। हिन्दी में ये दोनों ही विशेषताएं विद्यमान हैं। मध्यकालीन कवियों ने अरबी-फारसी के न जाने कितने शब्दों को न केवल अपनी भाषा में खपा लिया बल्कि उन्हें हिन्दी की प्रवृत्ति के अनुसार ढाल भी लिया था। यह क्रम चलता रहना चाहिए था।
हिन्दी की मौजूदा स्थिति निराशाजनक तो कदापि नहीं है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि भाषागत राजनीति में न उलझ कर हिन्दी को अपने हित के लिए दृढता से उस नीति का अनुसरण करना होगा जिससे वह और अधिक समृद्ध और सशक्त होती जाए और उसकी सर्वग्राह्यता बनी रहे।
डाॅ0 राजेश श्रीवास्तव
भोपाल म0प्र0
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